राजनैतिक चहरदीवारी तोड़कर राष्ट्रपति का चुनाव होना चाहिए?


लोकतंत्र में राष्ट्रपति का पद सबसे बड़ा होता है और वह देश का प्रथम सम्मानित नागरिक होता है।राष्ट्रपति का पद दलगत राजनीति से अलग होता है और वह सर्वमान्य नेता होता है।जब राष्ट्रपति सर्वमान्य होता है तो वह सभी राजनैतिक दलों का ही नहीं बल्कि पूरे देश के विभिन्न विचार धाराओं के लोगों का अगुवा एवं सर्वप्रिय हो जाता है।राष्ट्रपति पद के लिये राजनेता होना आवश्यक नहीं होता है और इस बाद पर कोई भी भारतीय किसी भी क्षेत्र से जुड़ा हो सकता है।
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम किसी राजनैतिक दल से जुड़े नहीं थे और वह लोकसेवक वैज्ञानिक थे लेकिन उनकी सेवाओं ने उन्हें राष्ट्रपति के पद पर पहुँचा दिया।वैसे बदलते राजनैतिक परिदृश्य में  इस पद का भी स्वरूप राजनैतिक होने लगा है और जो सत्ता में होता है वह अपनी पार्टी के सबसे बुजुर्ग नेता को राष्ट्रपति बनाकर उसके राजनैतिक सफर का अंत कर देता है।राष्ट्रपति पद के चुनाव में जब पूरा देश एकमत होकर किसी एक होनहार को चुन लेता है तो संसार में देश का मान सम्मान बढ़ जाता है।
आजादी मिलने के बाद कई बार निर्विरोध राष्ट्रपति का चुनाव हो चुका है और सभी लोगों ने एकमत से एक का चुनाव कर लिया।अभी पिछली कांग्रेस सरकार के वयोवृद्ध प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार की दावेदारी को समाप्त करने के लिये उन्हें राष्ट्रपति पद पर बिठा दिया था जबकि विपक्ष एपीजे अब्दुल कलाम को ही दूबारा राष्ट्रपति बनाने के पक्षधर था।इसके बावजूद महामहिम के रूप में पश्चिम बंगाल से जुड़े  प्रणव मुखर्जी को निर्विरोध चुन लिया गया था।इस बार राष्ट्रपति का चुनाव पूरी तरह से राजनैतिक वातावरण में हो रहा है और विपक्ष यह जानते हुये भी कि चुनाव जीत पाना असंभव है फिर भी प्रत्याशी मैदान में उतार कर चुनाव निर्विरोध नहीं होने देना चाहता हैं।
भाजपा की अगुवाई वाली राजग ने अपना राजनैतिक हित साधने के लिये अपनी पार्टी व संघ परिवार से जुड़े हुये एक निहायत गरीब दलित परिवार के ईमानदार कर्मठ स्वच्छ छबि वाले  बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को मैदान में उतारा है तो कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों ने भी इस बार ठान लिया है कि इस बार निर्विरोध राष्ट्रपति का चुनाव नहीं होने देंगे चाहे हार हो चाहे जीत हो।विपक्षी दलों ने भी राजनैतिक बुद्धि लगाकर बिहार की माटी से जुड़ी देश के जाने माने दलित नेता बाबू जगजीवन राम की पुत्री पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीराकुमार को मैदान में उतार कर निर्विरोध का मार्ग अवरूद्ध कर दिया गया है।
अब समय के साथ साथ राष्ट्रपति पद का स्वरूप बदलता जा रहा है और राष्ट्रपति को लेकर राजनीति की जाने लगी है।राष्ट्रपति का चुनाव भी राजनैतिक चुनावी लाभ लेने की दृष्टि से करने की परम्परा शुरू हो गयी है।अगर ऐसा नहीं होता तो इस बार भी राष्ट्रपति का चुनाव निर्विरोध हो जाता और एक अच्छा संदेशा दुनिया को जाता जिससे देश गौरवान्वित होता।राष्ट्रपति चुनावी शतरंज का मोहरा नहीं बल्कि वह सर्वमान्य सर्वप्रिय देशभक्त साहसी मर्मज्ञ होता है।यह सम्मान का पद होता है और इस पद पर रहने वाले को धन की चाहत नहीं होती है।
एपीजे अब्दुल कलाम जैसे कई राष्ट्रपति हुये हैं जो अपना वेतन तक देशहित में दान कर देते थे।इस गौरवशाली पद को राजनैतिक साये से बचाकर दूर रखने की जरूरत है जैसा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश ने किया है।नीतीश ने राष्ट्रपति पद के चुनाव के राजनैतिक गठबंधन को तोड़कर कोविंद को समर्थन दिया गया है जो स्वागत योग्य है।वैसे संख्या बल का राजनीति में बहुत महत्व होता है और पक्ष व विपक्ष की राजनीति संख्या बल के सहारे चलती है।संख्या बल ही विपक्ष की एकजुटता व शक्ति का द्योतक होता है लेकिन संख्या बल व प्रतिपक्ष शक्ति का प्रदर्शन राष्ट्रपति पद के लिये नहीं होना चाहिए।राजनैतिक महत्वाकांक्षा को छोड़कर और राजनैतिक चहरदीवारी तोड़कर राष्ट्रपति का चुनाव होना चाहिए।
              भोलानाथ मिश्र
    वरिष्ठ पत्रकार/ समाजसेवी
 रामसनेहीघाट,बाराबंकी यूपी 
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